'एक देश, एक चुनाव' पर बनी कोविंद समिति की रिपोर्ट को केन्द्रीय कैबिनेट से मंजूरी मिल गई है कहा जा रहा है कि केन्द्र सरकार आगामी शीतकालीन सत्र में इसे सदन में पेश कर सकती है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले 2019 में 73वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक देश एक चुनाव के अपने विचार को आगे बढ़ाया था उन्होंने कहा था कि देश के एकीकरण की प्रक्रिया हमेशा चलती रहनी चाहिए 2024 में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर भी प्रधानमंत्री ने इस पर विचार रखा अब विधि मंत्रालय के 100 दिवसीय एजेंडे के हिस्सा के रूप में कैबिनेट के सामने रिपोर्ट पेश की, जिसे कैबिनेट से मंजूरी मिल गई।
आखिर क्या है एक देश एक चुनाव का प्रस्ताव? पहले कब उठा था यह मुद्दा? क्या पहले कभी एक साथ देश में चुनाव हुए हैं? इस पर चुनाव आयोग का क्या रुख है? एक साथ चुनाव पर अभी क्या हुआ है? कोविंद समिति की सिफारिशें क्या हैं? आइये जानते हैं...
क्या है एक देश एक चुनाव की बहस?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 के स्वतंत्रता दिवस पर एक देश एक चुनाव का जिक्र किया था। तब से अब तक कई मौकों पर भाजपा की ओर एक देश एक चुनाव की बात की जाती रही है ये विचार इस पर आधारित है कि देश में लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हों अभी लोकसभा यानी आम चुनाव और विधानसभा चुनाव पांच साल के अंतराल में होते हैं। इसकी व्यवस्था भारतीय संविधान में की गई है अलग-अलग राज्यों की विधानसभा का कार्यकाल अलग-अलग समय पर पूरा होता है उसी के हिसाब से उस राज्य में विधानसभा चुनाव होते हैं।
हालांकि, कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ होते हैं इनमें अरुणाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम जैसे राज्य शामिल हैं वहीं, राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम जैसे राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव से ऐन पहले हुए तो लोकसभा चुनाव खत्म होने के छह महीने के भीतर हरियाणा, जम्मू कश्मीर में चुनाव हो रहे हैं। जल्द ही महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव तारीखों का एलान हो सकता है।
एक देश एक चुनाव की बहस की वजह क्या है?
दरअसल, एक देश एक चुनाव की बहस 2018 में विधि आयोग के एक मसौदा रिपोर्ट के बाद शुरू हुई थी उस रिपोर्ट में आर्थिक वजहों को गिनाया गया था आयोग का कहना था कि 2014 में लोकसभा चुनावों का खर्च और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों का खर्च लगभग समान रहा है वहीं, साथ-साथ चुनाव होने पर यह खर्च 50:50 के अनुपात में बंट जाएगा।
सरकार को सौंपी अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में विधि आयोग का कहना था कि साल 1967 के बाद एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया बाधित हो गई आयोग का कहना था कि आजादी के शुरुआती सालों में देश में एक पार्टी का राज था और क्षेत्रीय दल कमजोर थे धीरे-धीरे अन्य दल मजबूत हुए कई राज्यों की सत्ता में आए वहीं, संविधान की धारा 356 के प्रयोग ने भी एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया को बाधित किया अब देश की राजनीति में बदलाव आ चुका है कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों की संख्या काफी बढ़ी है वहीं, कई राज्यों में इनकी सरकार भी है।
लोकसभा-विधानसभा चुनावों का खर्च 'एकसमान'
विधि आयोग आयोग के मुताबिक 2014 लोकसभा चुनावों में कुल 35 अरब 86 करोड़ 27 लाख रुपए खर्च हुए थे। अकेले हरियाणा में इस पर 29 करोड़ खर्च हुए। राज्य में जब छह महीने बाद विधानसभा चुनाव हुए तो इन पर 33 करोड़ 72 लाख खर्च आया। इसी तरह झारखंड में लोकसभा चुनाव के दौरान कुल 89 करोड़ 47 लाख रुपए का खर्च आया। चंद महीने बाद राज्य में हुए विधानसभा चुनावों में 86 करोड़ खर्च हुए। मध्यप्रदेश में लोकसभा चुनाव से चंद महीने पहले हुए विधानसभा चुनावों में एक अरब 31 करोड़ का खर्च आया था। तीन महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश मे कुल एक अरब 99 करोड़ का खर्च हुए।
बार-बार चुनावों से चुनाव आयोग पर कितना बोझ?
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि 2019 में एक साथ चुनाव कराते हैं, तो तकरीबन 10 लाख पोलिंग बूथ बनाने होंगे और तकरीबन 13 लाख बैलेट यूनिट्स, 9.4 लाख कंट्रोल यूनिट्स और तकरीबन 12.3 लाख वीवीपैट मशीनों की जरूरत होगी। एक इलैक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन की कीमत 33 हजार 200 रुपए पड़ती है। चुनाव आयोग का कहना था कि साथ चुनाव होते हैं तो अकेले ईवीएम पर ही 4 हजार 555 करोड़ रुपए खर्च होंगे।
जबकि एक ईवीएम की अधिकतम उम्र 15 साल ही होती है। तब आयोग ने कहा था कि ईवीएम के आज की कीमत के हिसाब से 2024 में दोबारा एक साथ चुनाव कराने पर 1751 करोड़ रुपए का खर्च आएगा, जबकि 2019 में यह बढ़ कर 2018 करोड़ रुपए हो जाएगा। वहीं 2034 में साथ चुनाव कराने पर नई ईवीएम खरीदने में 14 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे।
पहले कब-कब एक साथ चुनाव हुए?
आजादी के बाद देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए। तब लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों की विधानसभा के चुनाव भी संपन्न हुए थे। इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी एक साथ लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराए गए। 1968-69 के बाद यह सिलसिला टूट गया, क्योंकि कुछ विधानसभाएं विभिन्न कारणों से भंग कर दी गई थीं।
एक राष्ट्र-एक चुनाव पर आयोजित एक वेबिनार में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस एके सीकरी ने कहा था, 'एक राष्ट्र-एक चुनाव नई धारणा नहीं है। आजाद भारत के पहले चार आम चुनाव ऐसे ही हुए थे। जस्टिस सीकरी कहते हैं, 'एक राष्ट्र, एक चुनाव प्रक्रिया में बदलाव 1960 से तब शुरू हुआ जब गैर कांग्रेस पार्टियों ने राज्य स्तर पर सरकारें बनाना शुरू किया। इसमें यूपी, बंगाल, पंजाब, हरियाणा शामिल थे। इसके बाद 1969 में कांग्रेस का बंटवारा और 1971 युद्ध के बाद मध्यावधि चुनाव हुए और इसके बाद विधानसभा चुनावों की तारीखें कभी आम चुनाव से नहीं मिलीं और अलग-अलग चुनाव शुरू हो गया।'
इसी वेबिनार में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पराग पी. त्रिपाठी ने कहा था, 'चुनाव लोकतंत्र से जुड़े हैं और लोकतंत्र शासन का जरिया है। एक राष्ट्र-एक चुनाव की धारणा 1952 से 1967 तक चली। राज्यों की संप्रभुता और पहचान अलग-अलग चुनाव से मजबूत हुई। देश के अर्ध एवं सहकारी संघवाद के लिए यह एक बेहतर विकल्प है।'
कैसे पारित होगा ये प्रस्ताव?
राज्यसभा के पूर्व महासचिव देश दीपक शर्मा ने इस बारे में एक इंटरव्यू में बताया, 'इस बारे में एक प्रक्रिया करनी होगी जिसमें संविधान संशोधन और राज्यों का अनुमोदन भी शामिल है। संसद में पहले इस विधेयक को पारित कराना होगा। एक अड़चन बताई जाती है कि इसे लागू करने से पहले विधानसभाओं को भंग करना होगा। हालांकि, ऐसा नहीं है जब राज्यसभा का गठन हुआ था और उसमें बहुत से सदस्य आये थे तो सवाल उठा था कि उनका एक तिहाई-एक तिहाई करने इन्हें रिटायर कैसे किया जाए। इसमें जरूरी नहीं है कि उनका कार्यकाल घटाया जाए, ऐसा भी हो सकता है कि जिन राज्यों का समय पूरा नहीं हुआ है उनको अतिरिक्त समय दे दिया जाए।'
अब सवाल उठता है कि राज्यों की विधानसभा भंग कैसे होगी? इसके दो जवाब हैं- पहला कि केंद्र राष्ट्रपति के जरिए राज्य में अनुच्छेद 356 लगाए। दूसरा यह है कि खुद संबंधित राज्यों की सरकारें ऐसा करने के लिए कहें।
इस पर चुनाव आयोग का क्या रुख है?
चुनाव आयोग ने कई बार कहा है कि वह एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनावों को करा सकता है। मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) राजीव कुमार के मुताबिक, एक ही समय में संसदीय और राज्य विधानसभा चुनाव कराने का विषय चुनाव आयोग के दायरे में नहीं आता है। उन्होंने कहा कि इसमें निश्चित रूप से बहुत सारे रसद, बहुत सारे व्यवधान शामिल हैं, लेकिन यह कुछ ऐसा है जो विधायिकाओं को तय करना है। उन्होंने कहा था कि निश्चित रूप से अगर ऐसा किया जाता है, तो हमने अपनी स्थिति सरकार को बता दी है कि प्रशासनिक रूप से आयोग इसे संभाल सकता है।
एक साथ चुनाव पर अभी क्या हुआ है?
पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता में 2 सितंबर, 2023 को एक साथ चुनाव पर उच्च स्तरीय समिति गठित की गई थी। समिति ने इस साल की शुरुआत में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को 18,626 पन्नों वाली अपनी रिपोर्ट सौंपी। सरकार ने कहा कि समिति के गठन के बाद से हितधारकों, विशेषज्ञों और 191 दिनों के शोध कार्य के साथ व्यापक परामर्श के बाद रिपोर्ट को तैयार किया गया है। कैबिनेट ने बुधवार (18 सितंबर) को एक साथ चुनाव कराने संबंधी उच्च स्तरीय समिति की सिफारिशें स्वीकार कर ली हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक साथ चुनाव संबंधी उच्च स्तरीय समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया है।
एक साथ चुनाव पर बनी समिति की सिफारिशें क्या हैं?
समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि एक साथ चुनाव की सिफारिशें को दो चरणों में कार्यान्वित किया जाएगा। पहले चरण में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ आयोजित किये जायेंगे। दूसरे चरण में आम चुनावों के 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकाय चुनाव (पंचायत और नगर पालिका) किये जायेंगे। इसके तहत सभी चुनावों के लिए समान मतदाता सूची तैयार की जाएगी। इसके लिए पूरे देश में विस्तृत चर्चा शुरू की जाएगी। वहीं एक कार्यान्वयन समूह का भी गठन किया जाएगा।
कोविंद समिति ने यह भी कहा
1951 से 1967 के बीच एक साथ चुनाव हुए हैं।
1999 में विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट में पांच वर्षों में एक लोकसभा और सभी विधानसभाओं के लिए चुनाव का सुझाव।
2015 में संसदीय समिति की 79वीं रिपोर्ट में दो चरणों में एक साथ चुनाव कराने के तरीके सुझाए गए।
राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय समिति ने राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों सहित विभिन्न हितधारकों से व्यापक परामर्श किया।
रिपोर्ट ऑनलाइन उपलब्ध है: https://onoe.gov.in
व्यापक फीडबैक से पता चला है कि देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए व्यापक समर्थन है।
एक देश एक चुनाव पर सरकार का क्या कहना है?
एक देश एक चुनाव भाजपा के चुनावी एजेंडे में शामिल रहा है। भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए केंद्र में अपने मौजूदा कार्यकाल के दौरान इस विधेयक को पेश करेगा। कोविंद कमेटी की रिपोर्ट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लगातार तीसरे कार्यकाल के पहले 100 दिन पूरे होने से ठीक बाद आई है। इस साल स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने भाषण के दौरान प्रधानमंत्री ने सभी से एक साथ चुनाव कराने के कानून के लिए एकजुट होने का अनुरोध किया था। इससे पहले केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा कि संसद परिपक्व है और चर्चा होगी, घबराने की जरूरत नहीं है। भारत को लोकतंत्र की जननी कहा जाता है, विकास हुआ है।
इससे पहले अधिकारियों ने समाचार एजेंसी पीटीआई को बताया था कि एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान में कम से कम पांच संशोधन करने होंगे। इनमें संसद के सदनों की अवधि से संबंधित अनुच्छेद 83, राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा को भंग करने से संबंधित अनुच्छेद 85, राज्य विधानमंडलों की अवधि से संबंधित अनुच्छेद 172, राज्य विधानमंडलों के विघटन से संबंधित अनुच्छेद 174 और राज्यों में राष्ट्रपति शासन को लागू करने से संबंधित अनुच्छेद 356 शामिल हैं। इसके साथ ही संविधान की संघीय विशेषता को ध्यान में सभी दलों की सहमति जरूरी होगी। वहीं यह भी अनिवार्य है कि सभी राज्य सरकारों की सहमति प्राप्त की जाए।
इसके विरोध में क्या तर्क हैं?
कांग्रेस ने 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के प्रस्ताव का पुरजोर विरोध किया है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने बुधवार को कहा कि लोकतंत्र में 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' काम नहीं कर सकता। खरगे ने कहा, 'हम इसके साथ नहीं हैं। अगर हम चाहते हैं कि हमारा लोकतंत्र जीवित रहे तो हमें जब भी आवश्यकता हो चुनाव कराने की जरूरत है।' इसके अलावा कांग्रेस नेता केसी वेणुगोपाल ने प्रस्ताव को गैर-व्यावहारिक बताया है। उन्होंने कहा, 'यह इस देश में व्यावहारिक नहीं है। वे वर्तमान मुद्दों से ध्यान हटाना चाहते हैं।'